- 250 Posts
- 637 Comments
आज जिस आधार पर हम जाती के नाम पर बटे हुए है सभी का अलग समूह है सभी की अपनी मांगे . क्या प्राचीन कल में भी इसी तरह जाती थी यानि इतनी जातीय या काम के आधार पर हर किसी को वर्गो में बता गया था . जैसे जो व्यापर करने लगा वह वैश्य , जो विधा ग्रहण करने लगा या जिसने वेद शास्त्रों में रूचि ली वह ब्राह्मण ,और जिन्होंने मेहनत कार्य किया जैसे चिनाई , लिपाई या किसी तरह की मजदूरी वह शुद्र कहलाये इसी तरह जो राजपुत्र हुआ या जिसने युद्ध के से या अपने बल से कोई राज्य जीता वह राजपूत या शत्रीय कहलाया .आइये समझते है चाणक्य निति क्या है .
बलं च विप्रान्म राज्ञा स्न्यम बलं तया .
बलं विधा च वैश्यना शुद्रानम प्रिच्यिता .२६
अर्थात . ब्राह्मणों का बल है विधा , राजाओ का बल है सेना , वैश्यो का बल है धन , और शुद्रो का बल है सेवा
यह चार स्तम्भ है भारत के जो किसी न किसी रूप में भारतीयों को मजबूती प्रदान करते है .
कुल मिलाकर प्राचीन काल में आज जितनी जातीय है उतनी जातीय नही थी सभी काम के आधार पर बाते थे . और जन्मजात से तो जाती थी ही नही . अगर कोई बड़ा व्यापर करने लगा तो वह वश्य हुआ और उसने अपनी बेटी या बेटे का विवाह भी व्यापारी के यहा किया और जिसने छोटा व्यापर किया उसे निचली श्रेणी में डाल दिया जैसे किसी ने दर्जी का काम किया उसकी अलग जात ,बल काटने वाले की अलग और जुटी गठन वालो की अलग . ठीक इसी तरह ब्राह्मण जिसने विधा ग्रहण की वह ब्राह्मण कहलाया और उसने अपने रिश्ते या सम्बन्ध भी किसी पढ़े लिखे या ज्ञानी के यहा किये . और श्त्रीय भी इसी तरह , और शुद्र भी इसी तरह . आज जितनी जात है और जन्मजात से हो सकता है यह गुलामिकाल की देन हो क्यों की गुलामी के समय हमारे इतिहास और संस्कृति , व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश की गयी . चलिए देखते है ब्राह्मणों के विषय में महात्मा बुध जी के विचार .
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्चं च धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो॥
भगवान बुद्ध धर्म कहते हैं कि ब्राह्मण न तो जटा से होता है, न गोत्र से और न जन्म से। जिसमें सत्य है, धर्म है और जो पवित्र है, वही ब्राह्मण है।
किं ते जाटाहि दुम्मेध! किं ते अजिनसाटिया।
अब्भन्तरं ते गहनं बाहिर परिमज्जसि॥
अरे मूर्ख! जटाओं से क्या? मृगचर्म पहनने से क्या? भीतर तो तेरा हृदय अंधकारमय है, काला है, ऊपर से क्या धोता है?
अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
जो अकिंचन है, किसी तरह का परिग्रह नहीं रखता, जो त्यागी है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
वारि पोक्खरपत्ते व आरग्गे रिव सासपो।
यो न लिम्पति कामेसु तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
कमल के पत्ते पर जिस तरह पानी अलिप्त रहता है या आरे की नोक पर सरसों का दाना, उसी तरह जो आदमी भोगों से अलिप्त रहता है, उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
निधाय दंडं भूतेसु तसेसु ताबरेसु च।
यो न हन्ति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
चर या अचर, किसी प्राणी को जो दंड नहीं देता, न किसी को मारता है, न किसी को मारने की प्रेरणा देता है उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूँ।
लेकिन जो ब्राह्मण कहलाये वह अपने पुत्रो को पढाने लग गए और जो शुद्र थे अधिकतरो ने मजदूरी का कार्य करवाया पुत्रो से इसी तरह व्यापारी का बेटा व्यापरी ही हुआ और राजा का राजा . लेकिन अगर किसी शुद्र का बेटा शास्त्रों का ज्ञान रखने लगा तो उसे भी ब्राह्मण कहा गया या किसी शुद्र के बेटे ने वयापार किया उसे वश्य की श्रेणी अर्थात वर्ग में रखा गया . और आगे चलकर एसी खाई उत्पन्न हुई की सभी को के अपने जातीय समूह हो गये जो की देश के लिए हानिकारक है . इस व्यवस्था से पहले की वयवस्था बेहतर थी उस समय वही ब्राह्मण हुआ करता जो विद्या ग्रहण करता . अगर वही व्यवस्था दोबारा लागु कर दी जाये तो उंच नीच या जाती पाती की लड़ाई खत्म हो जाये और भारत मज़बूत होकर उभरे
Read Comments