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मजबूत नही – कमजोर लोकतंत्र

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पिछले कुछ दिनों से हम सब राजनीति का उफान देख रहे हैं , देख रहे हैं कैसे पद के लिए राज्नैतिग्य किस हद्द तक जा सकते हैं ! प्रणब बाबू उम्र के इस पड़ाव में राष्ट्रपति बनने की उस समय भी हसरते पाले बैठे हैं जिस समय वह इस देश के वित्त मंत्री हैं और लंबा जीवन राजनितिक जीवन में बिता चुके हैं लेकिन राजनीति में पद पाने की भूख है की मिटती ही नही ! ममता बनर्जी , मुलायम यादव देश के सबसे कमजोर प्रधानमन्त्री को फिर से एक और पद दिलाने को आतुर नजर आते हैं ! कोई इस पद पर हामिद अंसारी को देखना चाहता है तो कोई कलाम को ……………………..
लेकिन इन सबके बीच इस देश का आम नागरिक खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है ! चुकी सभी राजनीती के धुरन्धरो की कुछ चाहते हैं , सपने हैं , आकान्शाये हैं किसी को पद से प्यार है तो कोई अपने चहेते को इस पद पर देखना चाहता है तो कोई इस बहाने अपने वोट बैंक को पुख्ता करना चाहता है ! लेकिन आम आदमी के सपनो का क्या कभी किसी राजनीतिग्य ने इस बात को जानने की कोशिश की है ? प्रणब को यह पद चाहिए तो वे काबूल की यात्रा को रद्द कर देते हैं , और ममता- मुलायम को कोंग्रेस को नीचा दिखाना है तो वह कोंग्रेसी उम्मीदवारों को खारिज कर अपने नाम सुझा देती हैं ! लेकिन जिस देश की जनता ने इन सभी नेताओं को कुर्सी पर बैठाया है उसकी भावनाओं को कोन समझेगा ! क्या कभी प्रणब दा , ममता . लालू , मुलायम , करुणानिधि , आडवाणी , ने उस जनता को राष्ट्रपति चुनने का अधिकार देने के लिए आवाज उठाई है ……….बिलकूल नही !
आखिर क्यों ??????????????
कैसा लोकतंत्र है ये ? जिसमे हर बार लोकतंत्र का गला घोटा जाता है कभी इस देश की जनता पर प्रधानमन्त्री थोप दिया जाता है तो कभी राष्ट्रपति को जातिवादी मानसिकता के नेता चुनते हैं ! आजादी से अब तक नेताओं ने जनता को क्या दिया है न तो वह गरीब जनता अपने देश का प्रधानंत्री चुन सकती है और न ही राष्ट्रपति फिर हम कैसे कह सकते हैं की हमारा लोकतंत्र मजबूत हो रहा है !

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